Saturday, 30 May 2015
Thursday, 28 May 2015
आ: धरती कितना देती है
मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।
सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये ।
मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक ,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर ।
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।
अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।
औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।
मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे
टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा ,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।
देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी -
जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।
निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले ,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से ,
नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है ।
तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है
यह धरती कितना देती है । धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने है
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है
इसमे मानव ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले
मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।
- सुमित्रानंदन पंत
Chidiya ka Geet
Sabse Pehle Mere Ghar ka
Anddey jaisa tha aakaar;
Tab main yahi samajhti thi Bus itna sa hi hai sansaar!
Phir mer ghar bana ghonsla,
Sookhe tinkon se tayyar
Tab main yahi samajhti thi Bus itna sa hi hai sansaar.
Phir main nikal padi shaakh par,
Hari bhari thi jo sukumar;
Tab main yahi samajhti thiBus itna sa hi hai sansaar.
Aakhir jab main aasmaan mein,
Udi door tak pankh pasaar
Tabhi samajh mein meri aaya Bahut bada hai yeh sansaar!
Bahut bada hai yeh sansaar!
Anddey jaisa tha aakaar;
Tab main yahi samajhti thi Bus itna sa hi hai sansaar!
Phir mer ghar bana ghonsla,
Sookhe tinkon se tayyar
Tab main yahi samajhti thi Bus itna sa hi hai sansaar.
Phir main nikal padi shaakh par,
Hari bhari thi jo sukumar;
Tab main yahi samajhti thiBus itna sa hi hai sansaar.
Aakhir jab main aasmaan mein,
Udi door tak pankh pasaar
Tabhi samajh mein meri aaya Bahut bada hai yeh sansaar!
Bahut bada hai yeh sansaar!
Wednesday, 27 May 2015
बुद्धि का बल
सुकरात एक बार अपने शिष्यों के साथ बैठे कुछ चर्चा कर रहे थे। तभी वहां अजीबो-गरीब वस्त्र पहने एक ज्योतिषी आ पहुंचा। वह सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए बोला ,” मैं ज्ञानी हूँ ,मैं किसी का चेहरा देखकर उसका चरित्र बता सकता हूँ। बताओ तुममें से कौन मेरी इस विद्या को परखना चाहेगा?”
शिष्य सुकरात की तरफ देखने लगे।
सुकरात ने उस ज्योतिषी से अपने बारे में बताने के लिए कहा।
अब वह ज्योतिषी उन्हें ध्यान से देखने लगा।
सुकरात बहुत बड़े ज्ञानी तो थे लेकिन देखने में बड़े सामान्य थे , बल्कि उन्हें कुरूप कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी।
ज्योतिषी उन्हें कुछ देर निहारने के बाद बोला, ” तुम्हारे चेहरे की बनावट बताती है कि तुम सत्ता के विरोधी हो , तुम्हारे अंदर द्रोह करने की भावना प्रबल है। तुम्हारी आँखों के बीच पड़ी सिकुड़न तुम्हारे अत्यंत क्रोधी होने का प्रमाण देती है ….”
ज्योतिषी ने अभी इतना ही कहा था कि वहां बैठे शिष्य अपने गुरु के बारे में ये बातें सुनकर गुस्से में आ गए और उस ज्योतिषी को तुरंत वहां से जाने के लिए कहा।
पर सुकरात ने उन्हें शांत करते हुए ज्योतिषी को अपनी बात पूर्ण करने के लिए कहा।
ज्योतिषी बोला , ” तुम्हारा बेडौल सिर और माथे से पता चलता है कि तुम एक लालची ज्योतिषी हो , और तुम्हारी ठुड्डी की बनावट तुम्हारे सनकी होने के तरफ इशारा करती है।”
इतना सुनकर शिष्य और भी क्रोधित हो गए पर इसके उलट सुकरात प्रसन्न हो गए और ज्योतिषी को इनाम देकर विदा किया। शिष्य सुकरात के इस व्यवहार से आश्चर्य में पड़ गए और उनसे पूछा , ” गुरूजी , आपने उस ज्योतिषी को इनाम क्यों दिया, जबकि उसने जो कुछ भी कहाँ वो सब गलत है ?”
” नहीं पुत्रों, ज्योतिषी ने जो कुछ भी कहा वो सब सच है , उसके बताये सारे दोष मुझमें हैं, मुझे लालच है , क्रोध है , और उसने जो कुछ भी कहा वो सब है , पर वह एक बहुत ज़रूरी बात बताना भूल गया , उसने सिर्फ बाहरी चीजें देखीं पर मेरे अंदर के विवेक को नही आंक पाया, जिसके बल पर मैं इन सारी बुराइयों को अपने वष में किये रहता हूँ , बस वह यहीं चूक गया, वह मेरे बुद्धि-बल को नहीं समझ पाया !” , सुकरात ने अपनी बात पूर्ण की।
यह प्रेरक प्रसंग बताता है कि बड़े से बड़े इंसान में भी कमियां हो सकती हैं, पर यदि हम अपनी बुद्धि का प्रयोग करें तो सुकरात की तरह ही उन कमियों से पार पा सकते हैं।
Monday, 25 May 2015
Thursday, 21 May 2015
Tuesday, 12 May 2015
Friday, 8 May 2015
बुझी मोमबत्ती
एक
पिता अपनी चार वर्षीय
बेटी गुड़िया से बहुत प्रेम करता था। ऑफिस से लौटते वक़्त वह रोज़ उसके लिए
तरह-तरह के खिलौने और खाने-पीने की चीजें लाता था। बेटी भी अपने पिता से बहुत
लगाव रखती थी और
हमेशा अपनी तोतली आवाज़ में पापा-पापा कह कर पुकारा करती थी।
दिन अच्छे बीत रहे थे की
अचानक एक दिन गुड़िया को बहुत तेज बुखार हुआ, सभी घबरा गए , वे दौड़े भागे डॉक्टर के पास गए ,
पर वहां ले जाते-ले जाते गुड़िया की मृत्यु हो गयी।
परिवार
पे तो मानो पहाड़
ही टूट पड़ा और पिता की हालत तो मृत व्यक्ति के समान हो गयी। गुड़िया के जाने
के हफ़्तों बाद भी वे ना किसी से बोलते ना बात करते…बस रोते ही रहते। यहाँ तक की उन्होंने ऑफिस जाना भी छोड़
दिया और घर से निकलना भी बंद कर दिया।
आस-पड़ोस
के लोगों और नाते-रिश्तेदारों ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर वे
किसी की ना सुनते , उनके
मुख से बस एक
ही शब्द निकलता … गुड़िया
!
एक
दिन ऐसे ही गुड़िया के बारे में सोचते-सोचते उनकी आँख लग गयी और उन्हें एक स्वप्न
आया।
उन्होंने देखा कि
स्वर्ग में सैकड़ों बच्चियां परी बन कर घूम रही हैं, सभी सफ़ेद पोशाकें पहने हुए हैं और हाथ
में मोमबत्ती ले कर चल रही हैं। तभी उन्हें गुड़िया भी दिखाई दी।
उसे
देखते ही पिता बोले , ” गुड़िया
, मेरी प्यारी बच्ची ,
सभी परियों की मोमबत्तियां जल रही हैं,
पर तुम्हारी बुझी क्यों हैं , तुम इसे जला क्यों नहीं लेती ?”
गुड़िया
बोली, ” पापा, मैं तो बार-बार मोमबत्ती जलाती हूँ ,
पर आप इतना रोते हो कि आपके आंसुओं से
मेरी मोमबत्ती बुझ जाती है….”
ये
सुनते ही पिता की नींद टूट गयी। उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया , वे समझ गए की उनके इस तरह दुखी रहने से
उनकी बेटी
भी खुश नहीं रह सकती , और
वह पुनः सामान्य जीवन की तरफ बढ़ने लगे।
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