Thursday 31 October 2013

सहभाजन (Sharing)

ठंडी सर्दियों की एक शाम को McDonalds में एक वृद्ध जोड़ा आया. वहाँ खाना खाने आये युवा परिवारों और युवा जोड़ों के बीच वह शायद कुछ अटपटे लग रहे थे. कुछ लोगों ने उन्हें देख कर कानाफूसी सी शुरू कर दी. देखो इनमे कितना प्यार है? दोनों शायद 60 साल से साथ हैं? आदि आदि.

वह वृद्ध आदमी बिना किसी 
हिचकिचाहट के, काउंटर पर गया, अपना आर्डर दिया, भुगतान किया और अपना भोजन ले लिया. इसके बाद वे दोनों पीछे की दीवार के पास एक मेज पर जा कर बैठ गए और अपना भोजन खोलने लगे. उनके भोजन में एक हैमबर्गर, फ्रेंच फ्राइज़ और एक कोल्ड-ड्रिंक थी. वृद्ध व्यक्ति ने हैमबर्गर खोला और ध्यान से आधा काट कर अपनी पत्नी के सामने रखा. फिर उसने ध्यान से फ्रेंच फ्राइज़ को गिना, दो ढेरियों में उन्हें विभाजित किया और बड़े करीने से अपनी पत्नी के सामने एक ढेरी रखी. फिर उसने ड्रिंक का एक घूंट लिया, फिर उसकी पत्नी ने एक घूंट लिया और ग्लास दोनों के बीच रख दिया.

वृद्ध व्यक्ति ने अब धीरे धीरे खाना शुरू किया. उसकी पत्नी बड़े प्यार से उसे खाते हुए देख रही थी. आस-पास बैठे लोग सोच रहे थे कि शायद पैसे की कमी के कारण ये दोनों एक भोजन को बांट कर खा रहे हैं.
जब वृद्ध व्यक्ति 
अपने फ्रेंच फ्राइज़ खाने लगा तो एक युवक उठ कर उनके पास आया और विनम्रता पूर्वक वृद्ध जोड़े के लिए एक और भोजन खरीदने की पेशकश की. वृद्ध व्यक्ति ने कहा नहीं इसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह दोनों सब कुछ बांटते हैं.

लोगों ने देखा कि बूढ़ी औरत ने एक भी कौर नहीं खाया था. वह सिर्फ अपने पति के खाते हुए देख रही थी. उस युवक से रहा नहीं गया,  
वह फिर आया और उनके खाने के लिए कुछ खरीदने की इजाज़त माँगी . इस बार महिला ने उत्तर दिया, "नहीं, हम सब कुछ एक साथ बांटते हैं.

थोड़ी देर बाद वृद्ध व्यक्ति ने अपना खाना खा लिया और एक नैपकिन से अपना चेहरा पोंछा. वह युवक एक बार फिर आया और कुछ खाना खरीद कर देने की पेशकश की. दोनों ने विनम्रता से फिर इनकार कर दिया.

युवक ने विनम्रता से पूछा "आंटी आप कह रही है कि आप लोग सब कुछ आपस में बांटते हो. तो फिर आप अपने हिस्से का भोजन क्यों नहीं खा रही हैं? आप किस बात का इंतजार कर रही हैं?"
वृद्धा ने उत्तर दिया, "दाँत".

पार्श्विक (lateral) और तार्किक (logical) सोच

सैकड़ों साल पहले एक छोटे शहर में, एक व्यापारी ने एक साहूकार से कुछ पैसे उधार लिए. परन्तु दुर्भाग्यवश वह समय पर अपना ऋण चुका नहीं पाया. साहूकार ने व्यापारी को बुलाया. व्यापारी के साथ उसकी बेटी भी थी. वे साहूकार के बगीचे में एक कंकड़ बिखरे पथ पर खड़े थे. साहूकार ने उसके सामने एक प्रस्ताव रखा की यदि वह व्यपारी अपनी सुन्दर युवा बेटी का विवाह उससे करा दे तो उसका ऋण माफ़ हो जाएगा. व्यपारी भला कैसे अपनी बेटी का विवाह बूढ़े और बदसूरत साहूकार से कर देता? व्यापारी और उसकी बेटी दोनों, साहूकार के प्रस्ताव से भयभीत थे.

चालाक साहूकार ने उन दोनों को दया दिखाने के बहाने कहा, वह एक खाली बैग में एक काला कंकड़ और एक सफेद कंकड़ रखा रखेगा. 
लड़की बिना देखे बैग में से एक कंकड़ उठाएगी. यदि उसने बैग में से काला कंकड़ उठाया तो वह साहूकार की पत्नी बन जाएगी और उसके पिता का कर्ज माफ कर दिया जाएगा. यदि उसने सफेद कंकड़ उठाया तो उसे उसे शादी करने की जरूरत नहीं है और उसके पिता का कर्ज भी माफ कर दिया जाएगा. परन्तु यदि लड़की ने कंकड़ उठाने से इनकार कर दिया तो उसके पिता को जेल में डाल दिया जायेगा. इतना कह कर साहूकार दो कंकड़ लेने के लिए झुका. उसने बड़ी ही चालाकी से दोनों ही काले कंकड़ उठा कर बैग में डाल दिए पर लड़की ने उसकी चालाकी को देख लिया की उसने दोनों काले कंकड़ ही उठाये थे. अब साहूकार ने लड़की को बैग से एक कंकड़ निकलने को कहा.

अब लड़की के सामने तीन ही विकल्प थे.

1. वह
 कंकड़ लेने से मना कर देती.
2. बैग में से दोनों काले कंकड़ निकाल कर साहूकार को बेनकाब कर देती.
3. लड़की एक काले पत्थर को निकाल कर अपने पिता को बचाने के लिए खुद को बलिदान कर देती.

लड़की ने कुछ देर सोचने के बाद, बैग में अपना हाथ डाल दिया, एक कंकड़ बाहर निकाला और बिना देखे गड़बड़ी दिखाते हुए उस कंकड़ को नीचे गिरा दिया.
 वह कंकड़ तुरंत अन्य सभी कंकडों के बीच में खो गया जहां कंकड़ बिखरे पड़े थे.

"ओह, में भी कैसी अनाड़ी हूँ?" उसने कहा. "मगर कोई बात नहीं, तुम बैग में देखो कौनसा कंकड़ है? यदि बैग में सफ़ेद कंकड़ है तो मैंने काला कंकड़ उठाया था और यदि कंकड़ काला है, तो मैंने सफेद उठाया था." 
साहूकार को अपनी बेईमानी स्वीकार करने की हिम्मत नहीं थी. लड़की ने बड़ी चतुराई से स्थिति को अपने पक्ष में कर लिया.

कहानी का सार यह है कि जटिल से जटिल समस्याओं का भी एक समाधान होता है, कभी कभी हमें एक अलग तरीके से उनके बारे में सोचने की ज़रुरत होती है.


उपरोक्त कहानी हमें पार्श्विक (lateral) और तार्किक (logical) सोच के बीच का अंतर बताती है.

देना नहीं सीखा

एक बार एक गरीब आदमी ने भगवान् बुद्ध से पूछा "मैं इतना क्यों गरीब हूँ?",

बुद्ध ने कहा "तुम गरीब हो क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा."

गरीब आदमी ने कहा "परन्तु मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है?"

बुद्ध ने कहा, "तुम्हारा चेहरा: एक मुस्कान दे सकता है. तुम्हारा मुँह: किसी की प्रशंसा कर सकता है या दूसरों को सुकून पहुंचाने के लिए दो मीठे बोल बोल सकता है, तुम्हारे हाथ: किसी ज़रूरतमंद की सहायता कर सकते हैं. और तुम कहते हो तुम्हारे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है"?

तो दोस्तों! वास्तव में हम में से कोई भी गरीब नहीं हैं, आत्मा की गरीबी ही वास्तविक गरीबी है. पाने का हक उसी को है जो देना जानता है.

1 किलो मक्खन

बहुत पुरानी बात है. एक किसान गाँव के बेकरी वाले को मक्खन बेचता था. वह प्रतिदिन एक किलो मक्खन बेकरी वाले को देता था और उससे एक किलो ब्रेड खरीदता था.

बहुत दिन तक यही सब सामान्य रूप से चलता रहा. एक दिन बेकरी वाले के मन में शक पैदा हुआ कि कहीं किसान मक्खन कम तो नहीं देता? उसने मक्खन तौल कर देखा तो वह एक किलो से बहुत कम था. उसे किसान पर बहुत गुस्सा आया. वह न्याय पाने के लिये किसान को राजा के पास ले गया.

बेकरी वाले की शिकायत सुनने के बाद राजा ने किसान से पूछा, "तुम्हें क्या कहना है"?

किसान ने कहा, "महाराज मैं उसे कम मक्खन क्यों दूंगा भला"?

राजा ने पूछा, "तुम मक्खन तौल कर देते हो"?

किसान ने कहा महाराज, "जी महाराज, मेरे पास एक तराजू है, पर बाट नहीं है".

राजा ने गुस्से से पूछा, "जब तुम्हारे पास बाट नहीं है, तो तुम मक्खन को तौलते कैसे हो"?

किसान ने विनम्रता पूर्वक कहा, "महाराज जो एक किलो ब्रेड मैं बेकरी वाले से लाता हूँ, उसी ब्रेड से तौल कर एक किलो मक्खन मैं उसे दे आता हूँ".

अब राजा को सारी बात समझ आ गई थी. राजा ने किसान को सम्मान पूर्वक छोड़ दिया और बेकरी वाले को उचित सज़ा दी.

हम दूसरों को जो देते हैं
, वही हमें वापस मिलता है. दूसरों से इमानदारी की अपेक्षा रखने से पहले हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हम इमानदारी से अपना काम करते हैं?  ईमानदारी और बेईमानी एक आदत बन जाती है. बहुत से लोग भोली सूरत बना कर बड़ी सरलता से बेईमानी करते हैं, झूठ बोलते हैं. और धीरे-धीरे ऐसे व्यक्ति के लिए झूठ और सच में कोई अंतर नहीं रह जाता.


Wednesday 30 October 2013

मन के ताले

हूडिनी अपने समय के सबसे बड़े जादूगरों में से एक था. वह मज़बूत से मज़बूत ताला खोलने में भी माहिर था. वह दावा करता था, कि वह अधिक से अधिक एक घंटे में दुनिया के किसी भी जेल से बच कर निकल सकता है. 
ब्रिटिश द्वीपों में एक छोटे से शहर में एक नई जेल का निर्माण हुआ, और हूडिनी को इससे निकलने की चुनौती दी गई, साथ ही पुरस्कार राशि की पेशकश भी थी. हूडिनी चुनौतियों से प्यार करता थाइसलिए उसने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया. 

आखिरकार वह दिन आ गया, जब उसे यह कर दिखाना था. वहाँ बहुत भीड़ मौजूद थी और मीडिया भी इस विशेष घटना को कवर करने के लिए भी वहाँ था. हूडिनी आत्मविश्वास से सेल में चला गया, और दरवाजा बंद कर दिया गया. 

अन्दर पहुँच कर तुरंत उसने अपना कोट उतारा और काम में लग गया. उसने अपनी बेल्ट में स्टील का एक लचीला, कठोर और टिकाऊ दस इंच का टुकड़ा छिपा रखा था, जिसे वह ताले खोलने के लिए प्रयोग करता था. उसे लगा कि जब उसे चुनौती दी गई है और साथ ही पुरस्कार भी है, तो निश्चित रूप से कई कुशल कारीगरों द्वारा बनाए गए अत्यंत मज़बूत ताले द्वार पर लगाए गए होंगे.

परन्तु मात्र 30 मिनट में उसका आत्मविश्वास गायब हो गया. एक घंटे के अंत में, वह पसीने में लथपथ था. दो घंटे के बाद, वह सचमुच दरवाजे के सहारे ढह गया. दरवाज़ा खोला गया. दरवाज़े पर ताला लगाया ही नहीं गया था. जब की हूडिनी मन में यही सोच बैठा कि बहुत से सर्वश्रेष्ठ ताले लगा दिए गए हैं और उसे बहुत ही मजबूती से बंद किया गया है. 

द्वार पर कोई ताला नहीं था. ताला केवल हूडिनी के मन में था. वह किसी भी वास्तविक ताले को खोल सकता था. पर ताला तो उसके मन में था जिसे खोलना था. केवल एक धक्के से ही दरवाज़ा खुल सकता था. 

हूडिनी की तरह, हमारे ताले हमारे अपने दिमाग में हैं और हमें अपनी ही 'जेल' से बाहर नहीं आने देते. हम में से अधिकांश लोग एक "मानसिक जेल" में बंद हैं और बाहर निकलने के लिए, हमें यह महसूस और स्वीकार करने के लिए जरूरत है. सारे मानसिक ताले केवल एक हलके से धक्के से खुल सकते हैं. केवल और केवल प्रयास करने भर की ज़रुरत है.

यह कहानी मैंने कहीं पढ़ी है. इसे ट्रांसलेट कर आपके साथ शेयर कर रहा हूँ.


भले लोग - बुरे लोग

किसी बड़े शहर की एक ग्रुप-हाऊसिंग सोसाइटी में कई ब्लॉक्स थे. चौकीदारी के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया हुआ था. चौकीदार के परिवार में उसकी पत्नी और ८ साल का एक बेटा टिनटिन ही थे. सोसाइटी के पास ही एक कमरे में यह परिवार रहता था. रात भर चौकीदार ड्यूटी करता, और सुबह जब वह सोता था तो उसका बेटा सोसाइटी के गेट पर ड्यूटी करता.

दिन में जब किसी फ्लैट की मेमसाब को कोई छोटा मोटा काम होता तो वह टिनटिन को बुला लेती. इस तरह बेचारा टिनटिन दिन भर गेट की ड्यूटी के साथ साथ, एक फ्लैट से दुसरे फ्लैट में भागता रहता और मेमसाब लोगों का काम करता रहता. बदले में उसे बचा-खुचा खाना और पुराने कपड़े मिलते थे.

अचानक एक दिन टिनटिन गेट पर नज़र नहीं आया. सोसाइटी की सारी औरतें परेशान हो गई. इतने काम पड़े हैं और टिनटिन लापता. जब दिन भर टिनटिन नज़र नहीं आया तो शाम को कुछ औरतें इकट्ठी हो कर उसके घर पता करने गईं, कि टिनटिन क्यों नहीं आया. 

टिनटिन की माँ ने उन्हें बताया की किसी भलेमानस साहब ने उसका स्कूल में दाखिला करवा दिया है और उसकी पढ़ाई का सारा खर्च भी वही साहब करेंगे. 

वे औरतें जब चौकीदार के घर से बाहर निकलीं तो उनके मन में उन भलेमानस साहब के लिए बेहद गुस्सा था. क्योंकि उनका मुफ्त का नौकर जो उनसे छिन गया था.

भले ही उन औरतों के मन में उन साहब के प्रति घृणा और गुस्सा था, पर उन साहब की अच्छाई से एक बालक का भविष्य बनने जा रहा था.

यह कहानी मैंने इन्टरनेट पर कहीं पढ़ी थी.

लक्ष्य हो मन में तो हर मंजिल आसान

4 जुलाई 1952 को, फ्लोरेंस चैडविक "कैटालिना चैनल" को तैर कर पार करने वाली पहली महिला बनने के लिए अपने अभियान पर थी. वह पहले से ही इंग्लिश चैनल पर विजय प्राप्त कर चुकी थी. सारी दुनिया यह नज़ारा देख रही थी. 

घने कोहरे, हड्डियाँ कंपा देने वाली ठंड के बावज़ूदचाडविक आगे बढती जा रही थी. कई बार उसे खतरनाक शार्क मछलियों का भी सामना करना पड़ रहा था. 

वह अपने चश्मे के माध्यम से किनारे को देखने का लगातार प्रयास कर रही थी. लेकिन घने कोहरे के कारण वह तट को नहीं देख पा रही थी. हर संभव प्रयास के बावज़ूद जब उसे तट नहीं दिखा तो उसने अपना अभियान बीच में ही छोड़ दिया. 

चैडविक को बाद में जब यह पता चला, कि वह तट से केवल आधा मील दूर थी तो उसे बहुत निराशा हुई. 

चाडविक ने अपना अभियान इस लिए नहीं छोड़ा था कि वह एक आलसी थी या हार मानने वालों में से थी, बल्कि इस लिए छोड़ दिया उसे लक्ष्य कहीं भी नज़र नहीं आ रहा था. 

पर इस बात का उस पर कोई असर नहीं पड़ा. उसने कहा, "मैं बहाने नहीं बना रही हूँयदि मुझे किनारा दिख जाता तो मैं अवश्य ही अभियान पूरा कर लेती." 

दो महीने बाद, वह वापस गई और कैटालिना चैनल तैर कर पार किया. इस बार खराब मौसम के बावजूद, वह मन में अपने लक्ष्य को लिए हुए, न केवल अपना अभियान पूरा किया बल्कि दो घंटे से पुरुषों की रिकॉर्ड को भी तोड़ा.

तो देखा आपने दोस्तों! लक्ष्य हो मन में तो हर मंजिल आसान हो जाती है.

यह कहानी मैंने इन्टरनेट पर कहीं पढ़ी थी.

कुत्ते का परीश्रम

एक किसान का पालतू कुत्ता सड़क किनारे बैठ कर आने-जाने वाले वाहनों का इंतजार करता था. जैसे ही कोई वाहन वहां से गुज़रता वह कुत्ता भौंकते हुए दूर तक उसके पीछे-पीछे दौड़ता मानो उस वाहन से आगे निकलना चाहता हो. 

एक दिन एक पड़ोसी किसान ने कहा "क्या आपको नहीं लगता कि आपका कुत्ता कार को पकड़ने के लिए जा रहा है?" 

किसान ने उत्तर दिया "मुझे इस बात की कोई परेशानी नहीं है. मुझे चिंता इस बात की है कि यदि यह एक भी कार नहीं पकड़ पाया तो वह क्या करेगा?" 


दोस्तों! आपको नहीं लगता की उस कुत्ते की तरह व्यवहार करते हुए, कुछ लोग जीवन में व्यर्थ लक्ष्य का पीछा करते हुए अपना समय एवं उर्जा व्यर्थ नष्ट करते हैं.

Tuesday 29 October 2013

समानुभूति (empathy)

एक बच्चा एक पिल्ला खरीदने के लिए पालतू जानवरों की दुकान पर गया. वहां चार पिल्ले एक साथ बैठे थे. कीमत पूछने पर दुकानदार ने कहा 1000 रुपये प्रत्येक. वहीँ एक पिल्ला एक कोने में अकेले बैठा हुआ था. 
बच्चे ने पूछा कि क्या वह पिल्ला भी उसी नस्ल का है, जिस नस्ल के बाकी चारों हैं

दुकानदार ने कहा हाँ यह भी इसी नस्ल का है, पर यह बिक्री के लिए नहीं है. 

बच्चे ने पूछा जब यह इसी नस्ल का है तो यह बिक्री के लिए क्यों नहीं है? और वह अकेला क्यों बैठा है?

दुकानदार ने कहा इस पिल्ले में एक विकृति है, इसलिए बिक्री के लिए नहीं है. 

क्या विकृति बच्चे ने पूछा

दुकानदार ने कहा जन्म से ही इसका एक पैर काम नहीं करता. इसीलिए यह बाकी पिल्लों से अलग रहता है.

बच्चे ने पुछा "आप इस एक के साथ क्या करेंगे?" दुकानदार ने कहा इसे सुला दिया जायेगा. 

बच्चे ने पूछा कि क्या वह उस पिल्ले के साथ खेल सकता है?

दुकानदार ने कहा "ज़रूर"
 

बच्चे ने पिल्ले को उठाया और पिल्ला उसे चाटने लगा. 

बच्चे ने कहा कि वह उस पिल्ले को खरीदना चाहता है. 

दुकानदार ने फिर कहा "यह बिक्री के लिए नहीं है!" 

परन्तु बच्चे के जोर देने पर दुकानदार सहमत हो गया. 

बच्चे ने 200 रुपये दुकानदार को देते हुए कहा कि वह बाकी पैसे ले कर जल्द ही आ जाएगा.

जैसे ही बच्चा बाहर निकलने लगा, दुकानदार ने कहा " मुझे समझ नहीं आ रहाजब तुम इतनी ही कीमत में एक अच्छा पिल्ला खरीद सकते हो, तो इसके लिये पूरे पैसे क्यों दे रहे हो?" 

बच्चे ने एक शब्द भी नहीं कहा. उसने सिर्फ अपने पतलून का बायाँ पैर उठा लिया. उसने उस पैर में एक ब्रेस पहन रखा था . दुकानदार ने नम आँखों से कहा " मैं समझ गया. तुम इसे यूँ ही ले लो"


दोस्तों यह है समानुभूति (empathy).

किसका अपराध?

 एक बार एक नदी के किनारे दो सन्यासी अपनी पूजा पाठ में लगे हुए थे. वहीँ पास ही नदी में एक स्त्री नदी में स्नान कर रही थी इस बात से अनजान कि नदी का जल-स्तर लगातार बढ़ रहा है.

सन्यासी अपनी पूजा में मग्न थे कि अचानक उन्हें बचाओ बचाओ की आवाज सुनाई दी. उन दोनों में से एक सन्यासी जिसने गृहस्थ जीवन के बाद सन्यास ग्रहण किया था, वह नदी में कूद गया और उस स्त्री को बचा कर किनारे पर सुरक्षित निकल लाया और फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया.

इस पर दूसरा सन्यासी बोला यह तुमनें अच्छा नहीं किया. स्त्री का स्पर्श भी हमारे लिए अपराध है. तुमने उस स्त्री को बचाया ज़रूर पर सन्यासी धर्म का उल्लंघन किया है. तुम्हें तो इस अपराध की सजा मिलनी चाहिए. पहले संय्यासी ने संयत स्वर में पूछा तुम किस औरत की बात कर रहे हो?

उसने क्रोधित हो कर कहा जिस स्त्री को तुमने अभी-अभी पानी से निकाला हैं. इस पर पहले सन्यासी ने उत्तर दिया उस घटना को तो बहुत समय बीत गया लेकिन तुम्हारे दिमाग से वह स्त्री अभी तक नही निकली मै तो उस घटना को भूल ही गया था. यह कह कर वह फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया

तो देखा दोस्तों दोनों सन्यासियों की सोच का अंतर? पहला सन्यासी जहाँ निर्मल मन से नदी में कूद गया और उस स्त्री को बचा लाया, पर उसके मन में कोई दुर्भावना या कलुष नहीं था. इसीलिए उसने तुरंत बिना किसी सोच विचार के, मानव धर्म निभाने के लिए, नदी से डूबती स्त्री को बचाया. वहीँ दूसरे सन्यासी ने मानवता को दर-किनार कर केवल सन्यासी धर्म को मानने का ढोंग किया क्योंकि उसके मन में कलुष था. पहला सन्यासी जहाँ लोकोपकार का कार्य करके उसे भूल भी गया वहीँ, दूसरा सन्यासी उस स्त्री और पहले सन्यासी के अपराध के बारे में ही सोचता रहा.

Monday 28 October 2013

काम छोटा हो या बड़ा, तैयारी ज़रूरी है

शहर से कुछ दूर एक बुजुर्ग दम्पत्ती रहते थे. वो जगह बिलकुल शांत थी और आस-पास इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आते थे. एक दिन भोर में उन्होंने देखा की एक युवक हाथ में फावड़ा लिए अपनी साइकिल से कहीं जा रहा है, वह कुछ देर दिखाई दिया और फिर उनकी नज़रों से ओझल हो गया. अगले दिन फिर वह व्यक्ति उधर से जाता दिखा. प्रतिदिन यही होता, वह व्यक्ति रोज फावड़ा लिए उधर से गुजरता और थोड़ी देर में आँखों से ओझल हो जाता.

दम्पत्ती
इस सुन्सान इलाके में इस तरह किसी के रोज आने-जाने से कुछ परेशान हो गए और उन्होंने उसका पीछा करने का फैसला किया. अगले दिन जब वह उनके घर के सामने से गुजरा तो दंपत्ती भी अपनी गाडी से उसके पीछे-पीछे चलने लगे. कुछ दूर जाने के बाद वह एक पेड़ के पास रुक और अपनी साइकिल वहीँ कड़ी कर आगे बढ़ने लगा. १५-२० कदम चलने के बाद वह रुका और अपने फावड़े से ज़मीन खोदने लगा.
दम्पत्ती को ये बड़ा अजीब लगा और वे हिम्मत कर उसके पास पहुंचे, “तुम यहाँ इस वीराने में ये काम क्यों कर रहे हो?”

युवक
बोला, “जी, दो दिन बाद मुझे एक किसान के यहाँ काम पाने के लिए जाना है, और उन्हें ऐसा आदमी चाहिए जिसे खेतों में काम करने का अनुभव हो, परन्तु मैंने पहले कभी खेतों में काम नहीं किया इसलिए यहाँ आकार खेतों में काम करने की प्रैक्टिस कर रहा हूँ!!” दम्पत्ती यह सुनकर काफी प्रभावित हुए और उसे काम मिल जाने का आशीर्वाद दिया.

किसी भी क्षेत्र में सफलता पाने के लिए तैयारी बहुत ज़रूरी है. जिस कर्तव्य-निष्ठा (sincerity) के साथ युवक ने खुद को खेतों में काम करने के लिए तैयार किया कुछ उसी तरह हमें भी अपने-अपने क्षेत्र में सफलता के लिए खुद को तैयार करना चाहिए।


यह कहानी मैंने इन्टरनेट पर कहीं पढ़ी थी.