Friday, 2 May 2014

धन और सक्षमता


धनवान होना या निर्धन होना अपने आप में कोई बुराई नहीं है। किन्तु चूँकि यह युग अर्थ युग है और इसमें प्रत्येक गणना अर्थ से शुरू होती है और अर्थ पर ही समाप्त होजाती है।  इसलिए इस युग में जीवन की वास्तविक शक्तियों,आत्मिक,मानसिक और शारीरिक शक्तियों से भी अधिक उसकी आर्थिक शक्ति का उसके व्यक्तित्त्व पर प्रभाव पड़े बगेर नहीं रहता है। यह अलग बात है की यदि उसमे वास्तविक शक्ति (आत्मिक,मानसिक,और शारीरिक) नहीं है तो यह धन केवल एक बोझ ही बन कर रह जाता है। कल्पना कीजिये उस शुगर के मरीज का जो, हर तरह की मिठाई खरीद सकता है किन्तु उसे खा ही नहीं सकता, तो यह मिठाई उसके लिए उपयोगी हुयी या अनुपयोगी? उसे अक्सर बेस्वाद करेले का रश पीते हुए देखा जा सकता है। आज धन के एक्त्रीकरण में लोग ऐसी अंधी भाग-म-भाग में लगे हुए है कि, इसके लिए वे अपने असली शक्तियों को ही नष्ट कर बैठते है। फिर जीवन आनंद से परिचय शायद अगले जन्म के लिए छोड़ देते है। आवश्यकता और सुविधाओ में जो भेद नहीं कर सकता वो कितना ही धन कमा ले किन्तु रहेगा निर्धन का निर्धन ही ".

इसलिए केवल अधिक धन कमाने से कोई धनवान तो हो सकता है किन्तु सम्पन्न हो यह आवश्यक नहीं। क्योंकि सम्पन्नता तो सक्षमता की चेरी या दासी है। इसका सीधा सा तात्पर्य यह हुआ कि,यदि हमे धन का उपयोग करना नहीं आता तो हम असंख्य धन को भी गवां बैठेंगे, और यदि हम उसका सदुपयोग जानते है तो फिर थोडे से में भी हम अपनी सम्पन्नता,सक्षमता और ऐश्रव्य को बनाये रखने में सफल होसकते है।

धन अपने आप में न ज्यादा होता है न ही कम,न अच्छा होता है और न बुरा ,यह उस व्यक्ति कि मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह इसे किस रूप में लेता है। हाँ एक निश्चित मात्रा में धन तो सभी को आवश्यक है ताकि वो अपनी रोटी,वस्त्र और सर छिपाने के लिए छत का इंतजाम तो कर सके। इसके अलावा जैसे जैसे उसकी मानसिकता पर दूसरे लोगो का, पड़ोसियों,मित्रों एवं रिश्तेदारों का प्रभाव पड़ता जाता है वो एक प्रतियोगिता का हिस्सा बन जाता है। फिर वो धन सदुपयोग के लिए नहीं केवल दूसरो की नजर में अपने को साखवाला, हैसियत वाला साबित करने के लिए उनकी होड़ा-हाड़ अंधाधुंध व्यय करना शुरू कर देता है जिसे अब हम अपव्यय ही कह सकते है। जबतक उसके पास धन सिमित होता है तबतक वह अपना बजट स्वयं बनता है और अपनी इच्छा से अपने धन को खर्च करता है या वह एक अर्थ-व्यवस्था बना कर चलता है। उसका अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण होता है और अपनी प्राथमिकताएँ स्वयं निश्चित करता है। किन्तु एकबार उसने अपने मन में यह मान लिया कि वह धनी है तब वह अपने ही मन में घोषणा कर देता है कि मै एक धनी व्यक्ति हूँ।

और अपनी इस घोषणा के बाद वह वो हरेक कार्य शुरू करने से पहले दुसरो के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव का ध्यान रखता है न कि स्वयं के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव का। वह अब बाजार और बनिए द्वारा फैलाये गए प्रचार-और विज्ञापनों के अधीन अपने विवेक को गिरवी रख देता है। अब उसके घर में क्या आवश्यकता है क्या नहीं यह ध्यान रखने के बजाय वह यह देखता है कि किस वस्तु का चलन और प्रचालन बाजार में है। वह अब यह नहीं देखता कि मुझे क्या खाना चाहिए और क्या पहनना चाहिए बाजार चूँकि पूंजीपति और बुद्धिजीवी वर्ग के हाथ का खिलौना रहा है,वह शुरू से पुरुषार्थी वर्ग कि भावनाओ पर चोट करता आया है। इसलिए वह बाजार में वो चीजे प्रचलित नही करता जो कि लोगो के लिए लाभप्रद हो। वह तो वो प्रतियोगिता की आंधी लाना चाहता है जिसमे स्थिर वृक्ष (पुराने धनी और सम्पन्न) भी उखड जाते है फिर अपने तने (क्षमता) से अधिक ऊँचे सर निकलने वाले वृक्षों का तो कहना ही क्या है। अब व्यक्ति बहुतसी ऐसी वस्तुओ को घर में भर लेता है जो कि उसके लिए न केवल अनुपयोगी है बल्कि बेहद हानिकारक भी है। क्या मुझे कोई बता सकता है कि व्यक्ति दूध और लस्सी जैसी स्वास्थ्य-वर्धक पेय को छोड़कर पेप्सी और कोला जैसे हानिकारक पेय को क्यों अपना बैठा? शायद यही विज्ञापन और दूसरे के अन्धानुकरण का परिणाम है।

जब व्यक्ति दूसरो का प्रभावित करने के लिए किसी भी हद तक यहाँ तक कि हानि उठाकर भी इस बाजारू प्रतियोगिता का त्याग नहीं करता है तो वो फिर कितना ही कमाये, उसमे क्षमता कहाँ रही? यदि उसकी मानसिक शक्ति में यह दम ही नहीं कि वो अपना भला बुरा स्वयं सोचे तो फिर शारीरिक शक्ति भी कितने दिन टिकेगी यदि आप उन खाद्य-पदार्थो का लगातार प्रयोग करेंगे तो निश्चित रूपसे आपकी शारीरिक शक्ति क्षय होगी। अब इस व्यक्ति कि हालत कुछ ऐसी हो जाएगी कि वह सभी साधनों के होते हुए भी उनका आनंद नहीं ले पाता है। और मानसिक और शारीरिक शक्ति की यह अपूर्णीय क्षति आपके लिए उस बेडी (जंजीर) का कार्य करती है ,जो एक कुत्ते को बांधे रखती है, जबकि मांस का टुकड़ा उसके पास ही पड़ा हुआ है किन्तु वो उसका स्वाद ही नहीं चख सकता। अब सवाल यह भी उठता है कि फिर कौनसी ऐसी शक्ति है की अपार धन होते हुए भी उसका बड़े आसानी से उपयोग किया जासकता है। वह शक्ति केवल एक ही है, और उसका नाम है आत्मिक शक्ति क्योंकि यदि आपकी यह शक्ति प्रबल होगी तो आप निश्चित रूपसे अपने को देख कर अपने को माप कर ही, कोई निर्णय, कोई प्राथमिकतायें तय करेंगे। तब आपमें यह मानसिक शक्ति स्वतंत्र होगी और अपने भले-बुरे का फैसला स्वयं कर पाएंगे न कि बाजार में षड़यंत्र के तहत फैलाई गयी प्रचार और विज्ञापनों की आंधी में बह कर, अपने अतीव श्रम से गाढ़ी कमाई का अपव्यय करेंगे। जब आपकी मानसिक शक्ति स्वतन्त्र होगी तो निशिचित रूपसे आप वही खायेंगे जो, आपके शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होगा। तब आप सभी साधनों को अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर प्रयोग कर पाएंगे। ऐसा यदि आप कर पाएंगे तो आप थोडा कमाएंगे तो भी , अपनी कमाई के अनुसार सर्वोतम वस्तु खरीद कर उपयोग करेंगे, और ऐसी स्थिति में हम सीमित साधन होते हुए भी सम्पनता को अनुभव करेंगे ,और सम्पन्नता तो सक्षमता की दासी है ही। और जो सक्षम है वही तो ऐश्वर्य-शाली है। इसिलए सक्षमता को अपनाओ न कि केवल धन को।

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