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Tuesday, 4 March 2014

बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछताय

बहुत समय पहले की बात है. एक गाँव में एक ब्राह्मण रहता था. भीख मांग कर अपना परिवार पालता था. एक दिन जब वह भीख मांगने गया तो उसने देखा कि नेवले का एक छोटा सा बच्चा ठण्ड से कांप रहा था. शायद उसकी माँ मर गई थी. यह देख ब्राह्मण को दया आ गई और वह उस नेवले के बच्चे को उठा कर अपने घर ले आया. उसकी पत्नि ने पहले तो नेवले के बच्चे को घर में रखने का विरोध किया कि कहीं वह उसके छोटे से बेटे को नुक्सान न पहुंचा दे. पर ब्राह्मण के समझाने पर वह मान गई. अब वह नेवले का बच्चा ब्राह्मण के बेटे के साथ ही उस घर में पलने लगा.
एक दिन ब्राह्मणी पानी लेने गई. उस समय उसका बच्चा सो रहा था. कुछ समय बाद ब्राह्मण भी भीख मांगने चला गया. इसी बीच कहीं से एक सांप वहां आ गया. नेवले ने सांप को देखा और उस पर टूट पड़ा. कुछ देर की लड़ाई के बाद उसने सांप को मार दिया और घर के बाहर जा कर ब्राह्मणी की प्रतीक्षा करने लगा.
कुछ देर बाद ब्राह्मणी वापस लौटी तो नेवले के मूंह पर लगे खून को देख कर बहुत डर गई. उसने सोचा की नेवले ने उसके बच्चे को नुक्सान पहुँचाया है. गुस्से में उसने पानी भरा घड़ा नेवले पर फेंका और घर के अन्दर भागी.
अन्दर जा कर उसने देखा की उसका बच्चा बड़े आराम से सो रहा है और उसके पास ही लहूलुहान एक सांप मरा पड़ा है. यह देख सारा माजरा उसे समझ में आ गया कि नेवले ने ही उस सांप से उसके बेटे की रक्षा की है.
वह जल्दी सी बाहर भागी. पर तब तक नेवला भी मर चूका था.
दोस्तों! शायद इसीलिए किसी ने कहा है, "बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछताय".

Saturday, 21 December 2013

अभी क्यों नहीं?

एक बार की बात है कि एक शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर-सम्मान किया करता थागुरु भी अपने इस शिष्य से बहुत स्नेह करते थे लेकिन वह शिष्य अपने अध्ययन के प्रति आलसी और स्वभाव से दीर्घसूत्री थासदा स्वाध्याय से दूर भागने की कोशिश करता तथा आज के काम को कल के लिए छोड़ दिया करता था. अब गुरूजी कुछ चिंतित रहने लगे कि कहीं उनका यह शिष्य जीवन-संग्राम में पराजित न हो जायेआलस्य में व्यक्ति को अकर्मण्य बनाने की पूरी सामर्थ्य होती हैऐसा व्यक्ति बिना परिश्रम के ही फलोपभोग की कामना करता है. वह शीघ्र निर्णय नहीं ले सकता और यदि ले भी लेता हैतो उसे कार्यान्वित नहीं कर पाता. यहाँ तक कि अपने पर्यावरण के प्रति भी सजग नहीं रहता है और न भाग्य द्वारा प्रदत्त सुअवसरों का लाभ उठाने की कला में ही प्रवीण हो पता है . उन्होंने मन ही मन अपने शिष्य के कल्याण के लिए एक योजना बना ली .एक दिन एक काले पत्थर का एक टुकड़ा उसके हाथ में देते हुए गुरु जी ने कहा –‘मैं तुम्हें यह जादुई पत्थर का टुकड़ा, दो दिन के लिए दे कर, कहीं दूसरे गाँव जा रहा हूँ. जिस भी लोहे की वस्तु को तुम इससे स्पर्श करोगे, वह स्वर्ण में परिवर्तित हो जायेगी. पर याद रहे कि दूसरे दिन सूर्यास्त के पश्चात मैं इसे तुमसे वापस ले लूँगा.’
 शिष्य इस सुअवसर को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ लेकिन आलसी होने के कारण उसने अपना पहला दिन यह कल्पना करते-करते बिता दिया कि जब उसके पास बहुत सारा स्वर्ण होगा तब वह कितना प्रसन्न, सुखी,समृद्ध और संतुष्ट रहेगा, इतने नौकर-चाकर होंगे कि उसे पानी पीने के लिए भी नहीं उठाना पड़ेगा . फिर दूसरे दिन जब वह प्रातःकाल जागा,उसे अच्छी तरह से स्मरण था कि आज स्वर्ण पाने का दूसरा और अंतिम दिन है .उसने मन में पक्का विचार किया कि आज वह गुरूजी द्वारा दिए गये काले पत्थर का लाभ ज़रूर उठाएगा . उसने निश्चय किया कि वो बाज़ार से लोहे के बड़े-बड़े सामान खरीद कर लायेगा और उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर देगा. दिन बीतता गया, पर वह इसी सोच में बैठा रहा की अभी तो बहुत समय है, कभी भी बाज़ार जाकर सामान लेता आएगा. उसने सोचा कि अब तो दोपहर का भोजन करने के पश्चात ही सामान लेने निकलूंगा. पर भोजन करने के बाद उसे विश्राम करने की आदत थी, और उसने बजाये उठ के मेहनत करने के थोड़ी देर आराम करना उचित समझा. पर आलस्य से परिपूर्ण उसका शरीर नीद की गहराइयों में खो गया, और जब वो उठा तो सूर्यास्त होने को था. अब वह जल्दी-जल्दी बाज़ार की तरफ भागने लगा, पर रास्ते में ही उसे गुरूजी मिल गए उनको देखते ही वह उनके चरणों पर गिरकर, उस जादुई पत्थर को एक दिन और अपने पास रखने के लिए याचना करने लगा लेकिन गुरूजी नहीं माने और उस शिष्य का धनी होने का सपना चूर-चूर हो गया . पर इस घटना की वजह से शिष्य को एक बहुत बड़ी सीख मिल गयी. उसे अपने आलस्य पर पछतावा होने लगा, वह समझ गया कि आलस्य उसके जीवन के लिए एक अभिशाप है और उसने प्रण किया कि अब वो कभी भी काम से जी नहीं चुराएगा और एक कर्मठ, सजग और सक्रिय व्यक्ति बन कर दिखायेगा.
 मित्रों, जीवन में हर किसी को एक से बढ़कर एक अवसर मिलते हैं, पर कई लोग इन्हें बस अपने आलस्य के कारण गवां देते हैं. यदि आप सफल, सुखी, भाग्यशाली, धनी अथवा महान बनना चाहते हैं तो आलस्य को त्यागकर, अपने अंदर विवेक, कष्टसाध्य श्रमऔर सतत् जागरूकता जैसे गुणों को विकसित कीजिये और जब कभी आपके मन में किसी आवश्यक काम को टालने का विचार आये तो स्वयं से एक प्रश्न कीजिये – “अभी क्यों नहीं?”

Wednesday, 18 December 2013

कारपेंटर

एक अत्यंत कुशल कारपेंटर बहुत अच्छे व सुन्दर घर बनाता था. ठेकेदार उसके कार्य से बहुत खुश था. जब वह बूढ़ा हो गया और कार्यनिवृत  (retire) होने वाला था. उसने अपने ठेकेदार को इस बारे में सूचना देदी. ठेकेदार ने उसे कहा तुम जाने से पहले केवल एक घर और बना दो.

कारपेंटर इस शर्त पर तैयार हो गया कि यह उसका अंतिम प्रोजेक्ट होगा. उसने घर बनाना शुरू किया. उसका ध्यान क्योंकि कार्यनिवृति (retirement) पर था, वह इस घर के निर्माण में अधिक ध्यान नहीं दे रहा था. उसका मन अपने काम में नहीं था. उसने घटिया निर्माण सामग्री का प्रयोग करते हुए बड़े बेमन से उस घर को पूरा कर दिया.

कार्य पूर्ण होने पर उसने ठेकेदार को बुला कर घर दिखाया. ठेकेदार जब घर देखने आया तो उसने उस घर के कागज और चाभी कारपेंटर को देते हुए कहा. यह है आपका कार्यनिवृति उपहार. यह घर आपका है. कारपेंटर सदमे में था. वह सोच रहा था, अगर उसे पता होता कि वह यह घर अपने लिए बना रहा है, तो वह उच्च कोटि की सामग्री का प्रयोग करता और मन लगा कर सबसे बढ़िया घर बनाता.

दोस्तों! क्या हम लोग भी उस कारपेंटर की भांति नहीं हैं? इश्वर ने हमें इस संसार में भेजा है अच्छे काम करने के लिए, पर हम कितने अच्छे काम करते हैं?

Thursday, 28 November 2013

एक टोकरी मिटटी

एक गांव में एक बेईमान जमींदार था. गांव के भोले भाले लोगों को लूटने और उनकी जमीन हथियाने में वह माहिर था. उसके इन्ही दुर्गुणों के कारण गांव का हर व्यक्ति उससे घृणा करता था. परन्तु जरूरत के समय उधार देने वाला उस गांव में जमींदार के अलावा और कोई नहीं था. गांव के अधिकतर लोगों की ज़मीन वह अपनी मक्कारी से हथिया चूका था.

ऐसे ही एक बूढी औरत ने जमींदार से कुछ रपये उधर ले रखे थे. बहुत कोशिस करने के बाद भी वह जमींदार का क़र्ज़ नहीं उतार पाई. जमींदार ने उसके खेत पर कब्ज़ा कर लिया.

अगले दिन वह बुढिया जमींदार के पास गई. उसे देखते ही जमींदार गुस्सा हो गया.

बुढिया ने कहा, "मैं अपना खेत वापस मांगने नहीं आई हूँ. परन्तु इस खेत से मुझे बहुत लगाव है. अगर आप आज्ञा दें तो इस खेत की एक टोकरी मिट्टी, यादगार के रूप में ले जाना चाहती हूँ."

जमींदार को इस बात में कोई हानि नज़र नहीं आई और उसने बुढ़िया को एक टोकरी मिट्टी ले जाने की अनुमति दे दी.

बुढ़िया ने मिट्टी खोद कर टोकरी भर ली और जमींदार से कहा कि वह टोकरी उठवा कर उसके सिर पर रखने में सहायता करे.

जमींदार ने कहा, "बुढ़िया यह टोकरी बहुत भरी है, तू इस बोझ को नहीं उठा पाएगी. तू मर जायेगी"

बुढ़िया ने बहुत नम्रता से कहा, "यदि मैं एक टोकरी मिट्टी से मर जाउंगी, तो तू खुद की सोच, इतने लोगों के ज़मीन हड़प कर तू कैसे जी पायेगा?"

यह सुन कर ज़मींदार को अपने किये पर बहुत पश्चाताप हुआ. उसने ना केवल उस बुढ़िया की, बल्कि गांव के हर व्यक्ति की ज़मीन लौटा दी.