एक बार एक नदी के
किनारे दो सन्यासी अपनी पूजा पाठ में लगे हुए थे. वहीँ पास ही नदी में एक स्त्री नदी में स्नान कर रही थी इस बात से अनजान कि
नदी का जल-स्तर लगातार बढ़ रहा है.
सन्यासी अपनी पूजा में मग्न थे कि अचानक उन्हें बचाओ बचाओ की आवाज सुनाई दी. उन दोनों में से एक सन्यासी
जिसने गृहस्थ जीवन के बाद सन्यास ग्रहण किया था, वह नदी में कूद
गया और उस स्त्री को बचा कर किनारे पर सुरक्षित निकल लाया और फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया.
इस पर दूसरा
सन्यासी बोला यह तुमनें अच्छा नहीं किया. स्त्री का स्पर्श भी हमारे लिए अपराध है. तुमने उस स्त्री को बचाया ज़रूर पर सन्यासी धर्म का
उल्लंघन किया है. तुम्हें तो इस अपराध की सजा मिलनी चाहिए. पहले संय्यासी ने संयत स्वर में पूछा तुम किस औरत की बात कर
रहे हो?
उसने क्रोधित हो
कर कहा जिस स्त्री को तुमने अभी-अभी पानी से निकाला हैं. इस पर पहले सन्यासी ने उत्तर दिया उस घटना को तो बहुत समय बीत गया लेकिन
तुम्हारे दिमाग से वह स्त्री अभी तक नही निकली मै तो उस
घटना को भूल ही गया था. यह कह कर वह फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया.
तो देखा दोस्तों दोनों
सन्यासियों की सोच का अंतर? पहला सन्यासी जहाँ निर्मल मन से नदी में कूद
गया और उस स्त्री को बचा लाया, पर उसके मन में कोई दुर्भावना
या कलुष नहीं था. इसीलिए उसने तुरंत बिना किसी सोच विचार के, मानव
धर्म निभाने के लिए, नदी से डूबती स्त्री को बचाया. वहीँ
दूसरे सन्यासी ने मानवता को दर-किनार कर केवल सन्यासी धर्म को मानने का ढोंग किया
क्योंकि उसके मन में कलुष था. पहला सन्यासी जहाँ लोकोपकार का कार्य करके उसे भूल
भी गया वहीँ, दूसरा सन्यासी उस स्त्री और पहले सन्यासी के
अपराध के बारे में ही सोचता रहा.
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