ज्यों निकल कर बादलों क़ी गोद से
थी अभी इक बूंद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर फिर यही जी में लगी
आह घर छोड़ कर मैं क्यों यों कढ़ी
देव मेरे भाग्य में है क्या बदा
में बचूंगी या मिलूँ गी धूल में
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी
चू पडूँ गी या कमल के फूल में
बह गयी उस काल इक ऐसी हवा
वह समुन्दर क़ी ऑर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुहं था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी
लोग यूँ ही झिझकते सोचते हैं अक्सर
जब क़ी उन को छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूद लौं देता है कुछ और कर
थी अभी इक बूंद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर फिर यही जी में लगी
आह घर छोड़ कर मैं क्यों यों कढ़ी
देव मेरे भाग्य में है क्या बदा
में बचूंगी या मिलूँ गी धूल में
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी
चू पडूँ गी या कमल के फूल में
बह गयी उस काल इक ऐसी हवा
वह समुन्दर क़ी ऑर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुहं था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी
लोग यूँ ही झिझकते सोचते हैं अक्सर
जब क़ी उन को छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूद लौं देता है कुछ और कर
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