अपने पिछले
आर्टिकल "विचार बनायें जिंदगी" में मैंने लिखा था कि अपने विचारों की
शक्ति से हम वह सब कुछ पा सकते हैं, जो हम चाहते हैं. पर क्या हम सही दिशा में सोच पाते हैं? शायद नहीं. क्योंकि हमारे विचारों को तो ग्रहण लगा है. हमारी सोच को एक सीमित
दायरे से बाहर झाँकने की आदत ही नहीं है. हमारे अपने ही लोगों ने, जिनमे हमारे मित्र, परिवार के लोग, परिचित, रिश्तेदार आदि सभी लोगों ने, बरसों से हमारे
विचारों को इस प्रकार जकड़ कर रख दिया है, कि हम समाज के द्वारा निर्धारित परिधि से बाहर कुछ सोचने का साहस ही नहीं जुटा पाते.
बचपन से ही हमें सिखाया जाता है "कहना बहुत आसान है, पर करना बहुत मुश्किल" या फिर, यह तो हो ही नहीं सकता,
यह सब तुम्हारे बस की बात नहीं है, इत्यादि इत्यादि. अर्थात हर प्रकार की नकारात्मकता कूट कूट कर हमारे दिमाग में
भर दी जाती है. और हम यह मान लेते हैं की वास्तव में "कहना बहुत आसान है, पर करना बहुत मुश्किल" या फिर, यह तो हो ही नहीं सकता,
यह सब अपने बस की बात नहीं है.
वैसे भी मानव मन किसी भी बदलाव (change) को आसानी से स्वीकार नहीं करता क्योंकि किसी प्रकार के बदलाव के
लिए हमें अपने लिए दूसरों द्वारा निर्धारित या स्वनिर्धारित मार्ग से अलग हो कर
चलना पड़ता जो हमें कठिन लगता है.
आपने कभी अपने आस-पास किसी खाली
पड़े प्लाट को देखा है? लोग उस प्लाट में कूड़ा फेंकना
शुरू कर देते हैं. धीरे धीरे कूड़े का ढेर जमा हो जाता है जिसे आसानी सी साफ़ नहीं
किया जा सकता. यही हाल हमारे दिमाग का होता है. दूसरों द्वारा भरी गयी नकारात्मकता
इस प्रकार हमारे दिमाग में बैठ जाती है की हम चाह कर भी उसे साफ़ नहीं कर पाते.
अपनी ही सोच की
बेड़ियों में जकड़े हुवे हम किसी निरीह प्राणी की भांति,
एक असहाय सा, सामान्य सा,
हारा हुआ सा जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. जब आप अपने घर की सफाई प्रतिदिन करते
हैं, अपने तन की सफाई भी प्रतिदिन करते हैं,
तो अपने मन की सफाई क्यों नहीं करते?
आपने शायद सर्कस के हाथियों वाली
कहानी सुनी होगी? एक बार एक आदमी सर्कस देखने गया. वहां बंधे हाथियों
को देखा, और अचानक रुक गया. उसने देखा कि
हाथियों के एक पैर में एक रस्सी बंधी हुई है. उसे इस बात का बड़ा आश्चर्य हुआ की हाथी जैसे
विशालकाय जीव लोहे की जंजीरों की जगह बस एक छोटी सी रस्सी से बंधे हुए हैं!!! ये
हाथी जब चाहते तब अपने बंधन तोड़ कर कहीं भी जा सकते थे, पर से वो ऐसा नहीं कर रहे थे. उसने पास खड़े महावत से पूछा कि भला ये
हाथी किस प्रकार इतनी शांति से खड़े हैं और भागने का प्रयास नही कर रहे हैं ?
तब महावत ने
कहा, ” इन हाथियों को इनके छुटपन से ही
इन रस्सियों से बाँधा जाता है, उस समय
इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती की इस बंधन को तोड़ सकें. बार-बार प्रयास करने पर
भी रस्सी ना तोड़ पाने के कारण उन्हें धीरे-धीरे यकीन होता जाता है कि वो इन
रस्सियों को नहीं तोड़
सकते, और
बड़े होने पर भी उनका ये यकीन बना रहता है, इसलिए
वो कभी इसे तोड़ने का प्रयास ही नहीं करते.”
आदमी आश्चर्य
में पड़ गया कि ये ताकतवर जानवर सिर्फ इसलिए अपना बंधन नहीं तोड़ सकते क्योंकि वो
इस बात में यकीन करते हैं!!
इन हाथियों की
तरह ही हममें से कितने लोग, अपने
प्रादुर्भाव के कारण, या फिर दूसरों द्वारा हमारे दिमाग में बिठाए
हुवे गलत विश्वास या
सिर्फ पहले मिली किसी असफलता के कारण ये मान बैठते हैं कि अब हमसे ये काम हो ही
नहीं सकता और अपनी ही बनायीं हुई मानसिक जंजीरों में जकड़े-जकड़े पूरा जीवन गुजार
देते हैं.
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