बहुत पुरानी बात है. एक पाठशाला में एक
बहुत ही गरीब स्वाभिमानी छात्र पढ़ता था. इतना गरीब, कि उसके तन पर पूरे कपड़े
भी नहीं होते थे. परन्तु पाठशाला
की फीस वह
नियम से भरता था. पढ़ाई में अव्वल होने के कारण दूसरे सब विद्यार्थी उससे ईर्ष्या
करने लगे. लोगों ने सोचा कि इसके पास तन ढंकने को कपड़े भी नहीं होते तो यह फीस के
पैसे कहां से देता है? वह
जरूर कहीं से चुराकर लाता होगा.
ईर्ष्यालु छात्रों ने ऐसी अफवाहें फैला कर उसे पकड़वा दिया. उसे जब राजा के समक्ष ले जाया गया, तो छात्र नेराजा से कहा कि मैं निर्दोष हूं, मेहनत मजदूरी करके अपना पेट भरता हूँ और अपना जीवन संवारने के लिए पढ़ाई भी करता हूँ. पाठशाला से सीधे मैं गाँव के बनिए की दूकान पर तीन-चार घंटे मजदूरी करता हूँ, इसी मजदूरी से मैं अपनी शिक्षा का खर्च वहन करता हूँ. शाम के समय पड़ोस के कुछ छात्रों को पढाता हूँ. छात्रों को पढ़ाने के बदले मुझे उनके घर से खाना मिल जाता है. इस प्रकार मैं अपना गुजर-बसर करता हूँ.
राजा ने पूरे मामले की छान-बीन करवाई तो पाया कि वह छात्र सच बोल रहा है. इस मेहनती गरीब छात्र की सच्चाई पर राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे पढ़ाई पूरी करने के लिए आर्थिक सहायता देने की घोषणा की. छात्र ने राजा को धन्यवाद देते हुए उनकी सहायता लेने से इनकार कर दिया और कहा, "क्षमा करें महाराज, मैं आपकी सहायता स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि मैं स्वाभिमान पूर्वक, केवल अपने परिश्रम के बल पर जीवन-यापन करते हुए आगे बढ़ना चाहता हूँ. मुझे मेरे माता पिता ने यही सिखाया था. अब जब कि वे इस संसार में नहीं हैं, उनकी शिक्षा कैसे भुला दूं?"
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